Skip to main content

प्रश्र (१६)

प्रश्र (१६) : "हरि ૐ तत्सत् जय गुरुदत्त" यह मंत्र किस शास्त्र अथवा तंत्र में दिया गया है ? इसमें प्रयोजित कीए गए शब्दों का अर्थ क्या है?

प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज:

"हरि ૐ तत्सत्" वाक्यांश महानिर्वाण तंत्र में है । जबकि "ॐ तत्सत्" वाक्यांश श्रीमद भगवद गीता में है । संपूर्ण मंत्र "हरि ૐ तत्सत् जय गुरुदत्त" यधपि शास्त्रमान्य है, परन्तु किस शास्त्र में कहाँ पर दिया गया है ये जानकारी नहीं है । गिरनार में देवों, सिद्धों संतों को मधुर ध्वनि के साथ इस मंत्र का गान करते हुए देखा है, सुना है । सभी इस मंत्र को धून के रुप में बोलते हुए मस्ती के साथ नाचते हैं । संभव है कि - यह सिद्धलोक का मंत्र है । मनुष्य लोक में प्राप्त मंत्रों की संख्या की अपेक्षा सिद्ध लोक में प्राप्त मंत्रों की संख्या बहुत अधिक है ।

प्रत्येक मंत्र का अर्थ समझना आवश्यक नहीं है, और आसान भी नहीं है । सावर मंत्रों के अर्थ बहुत जटिल और उल्टे पुल्टे होते है । फिर भी उनका प्रयोग जिस किसी भी कार्य के लिए किया जाता है उस कार्य में अवश्य ही सफलता मिलती है । इस मंत्र में प्रयोजित कीए गए शब्दों के अर्थ संक्षेप में इस प्रकार हैं :-

  • हरि - इस शब्द में तीन वर्ण है - ह, र, ई । 'ह' - आकाश तत्त्व का सूचक है । 'र' अग्नि तत्त्व का और 'ई' शक्ति का बोध कराता है । इसलिए 'हरि' का अर्थ है व्यापक शक्तिशाली ब्रह्म या आधि, व्याधि, दुःख कष्ट को हरनेवाले परमेश्वर ।

  • ૐ - प्रणव ब्रह्मवाचक है । उसमें तीन वर्ण है । 'अ', 'उ', 'म' - ये तीनों वर्ण त्रिदेव स्वरूप है, कोई इन्हें सत्त्व, रजस और तमस - इन त्रिगुण से संयुक्त मानते है या कोई त्रिगुण के आधार पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी कहते है । तीनों वर्ण और चंद्रबिन्दु युक्त प्रणव का अर्थ परब्रह्म परमात्मा है । अर्थात् ब्रह्मवाचक है ।

  • तत् - निरंजन, निराकार ,अखंड व्यापक परब्रह्म - यह परमेश्वर का सांकेतिक शब्द है ।

  • सत् - यह शब्द शाश्वत ब्रह्म का निर्देश करता है, या ब्रह्म प्राप्ति में मदद करता है स्वयं ब्रह्म स्वरूप है ।

  • जय - यह प्रशंसा वाचक शब्द है । परंतु नित्य, अव्यक्त, अक्षय वस्तु की प्रशंसा में ही 'जय' शब्द चरितार्थ होता है ।

  • गुरु - यह शब्द 'गु' और 'रु' दो अक्षरों से बना हुआ है । 'गु' का अर्थ है अंधकार और 'रु' का अर्थ है प्रकाश । जो अज्ञान रूपी अंधकार में से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते है, जो अनित्य से नित्य की ओर ले जाते है । शिष्य के सभी शुभ-अशुभ कर्मों का भार वहन करते हैं, उनका नाम 'गुरु' है ।

  • दत्त - जो तत्त्व बोध और ज्ञान प्रदान करते है, वही दत्त है । 'द' का अर्थ है 'देना' और 'त्त' का अर्थ है तत्त्व, बोध, ज्ञान । जो अच्छे शिष्य को ज्ञान देकर, उसे आत्मतत्त्व समझाकर सुख और शांति देते है उन्हीं का नाम 'दत्त' है ।

सारांश यह है कि, ज्ञान शक्ति से भरपूर, परिपूर्ण आकाशवत्, अखंड व्यापक ब्रह्म है । जिसे कोई नाद या प्रणव के स्वरूप में जानते हैं वहीं नित्य है, और सत्य है । वह ब्रह्म साधकों को तत्त्वों का बोध करवाकर अंधकार में से प्रकाश की ओर ले जाता है, और मुक्त करता है । ऐसे ब्रह्म अथवा गुरु की जय जयकार हो।


~प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज,
गिरनार साधना आश्रम, जूनागढ़

॥ हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त ॥
(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज की ४५ साल की कठोर तपस्या के फल स्वरुप उन्हें भगवान दत्तात्रेय से साधको के आध्यात्मिक उथ्थान और मानसिक शांति के लिए प्राप्त महामंत्र)



pathpradipika QA sukh shanti kasht Mukti MahaMantra Drashta P.P. Maharshi Punitachariji Maharaj Hari Om Tatsat Jai Guru Datta Mantra for mental peace