प्रश्न (१)
प्रश्न (१) : जीवन में सुख और शांति तथा कष्टों से मुक्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है ?
प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज:
सुख और दु:ख जीवन के दो पहलू हैं। जैसे कि, एक कागज की दोनों बाजु बराबर होती हैं। दु:ख में से निवृत्ति मिलना ही सुख है, लेकिन दोनों वस्तुएं क्षणिक है, अस्थायी है। शास्त्रों और महापुरुषों का कहना है कि शाश्वत और स्थायी सुख की प्राप्ति भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं मिल सकती है। सुख का उद्भभव तो मनुष्य के अंदर ही होता है। वहां से ही उसको ख़ोज निकालना पड़ता है। मुख्यतः दुःख तीन प्रकार के होते हैं।
(१) आधिदैविक: अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप, तूफान इत्यादि... इन सबके ऊपर मनुष्य का कोई अंकुश नहीं है।
(२) आधिभौतिक: जंगली जानवरों और कीड़ों के काटने से होने वाले दुख जैसा, चेतन या अचेतन पदार्थों के कारण होने वाला दुःख।
(३) आधिदैहिक: यह दुःख दो प्रकार के होते हैं। (अ) भौतिक - शारीरिक रोग जिसका इलाज संभव है। (ब) मानसिक - मन में सतत चालू रहते विचारोंजन्य दुःख।
आधिदैहिक भौतिक दुःख अस्थायी है, और इसका शमन दुःख उत्पन्न करने वाले कारणों के दूर हो जाने से होता है। लेकिन मानसिक आधिदैहिक दुःख एक तरह से स्थायी माना जाता है, क्योंकि मन में विचारों का प्रवाह निरंतर चलता रहता है। इसका मतलब यह नहीं कि, उत्पन्न होते और प्रवाहित होते हुए सभी विचार दुःखदायी होते हैं। क्योंकि उसमें से कुछ तो अधिक सुख और शांति देने वाले विचार भी होते हैं। लेकिन ये विचारों का वियोग होते ही वे भी दुःखदायी हो जाते हैं, क्योंकि मन उनकी ओर ही आकर्षित रहना चाहता है। मन को समझा बुझाकर अपने अनुकूल बना लेने से विचारों का प्रवाह कम हो जाता है, और उसके पश्चात् ही शाश्वत सुख तथा शांति की प्राप्ति संभव होती है, अन्यथा नहीं।
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