Skip to main content

प्रारब्ध कर्म भोग कर ही मुक्ति मिलती है

संचित कर्म सदगुरु की कृपा से जल जाते है । जबकि हररोज बनते क्रियमाण कर्म हर दिन सदगुरु को अर्पण करने से उसका संग्रह नहीं होता, लेकिन प्रारब्ध कर्म तो भूगतने ही पड़ते है । सदगुरु कृपा से प्रारब्ध कर्म भूगतने में कष्ट नहीं होता । जिस तरह डॉक्टर शरीर का अंग झूठा/निष्क्रिय कर के फिर ऑपरेशन करते हैं जिससे हमको पता भी नहीं चलता, इसी प्रकार प्रारब्ध कर्म भी कम तकलीफ में भोगले ऐसी शक्ति सदगुरु देते है । भगवान श्रीकृष्ण को भी प्रारब्ध कर्म भोगना ही पड़ा था ।

सुख, दु:ख एवं द्वंद्व जिसको स्पर्शे नहीं उसे जीवनमुक्त अवस्था कहते है । राजा जनक ऐसे ही जीवनमुक्त ज्ञानी आत्मा थे ।

जब कोई दु:ख सहन नहीं हो तब भगवान को प्रार्थना करना कि - है भगवान् ! अब सहा नहीं जाता ! वह तुरंत ही आपका कष्ट ले लेंगे । अंत में वह किसी भी तरह से स्थूल देह धारण करके आपका कष्ट भोग लेंगे क्योंकि, ईश्वरीय कानून अचल है । प्रारब्ध कर्म स्थूल शरीर से भोगने पर ही मुक्ति मिलती है ।

अनेको जन्मों के संचित कर्म सदगुरु सेंकड़ों स्थूल शरीर बनाकर और भोग कर, साधक के कर्मों को काट कर उसे आगे ले जाते है । लय योग, क्रिया योग ओर आंतर योग इन तीनों योग से आपके संचित कर्मों को भगवान काट देते है ।

जीवन मुक्त अवस्था के बाद की अवस्था "विदेह अवस्था" कहेलाती है । राजा जनक को "विदेही जनक" कहते थे । विदेही और चिन्मय अवस्था । जीवनमुक्त अर्थात् तुर्या और विदेही अर्थात् तुर्यातीत । ऐसी अवस्था के बाद २४ से २८ दिन परम अवधूत अवस्था रहेती है । फिर देह छूट जाता है ।

किसी किसी को ऐसी अवस्था नहीं आती, सिर्फ शांभवी अवस्था रहेती है, जो मौन भाषा में उपदेश देती है और प्रश्नो का समाधान करती है ।

कोई कोई २४ दिनमें समाधी ले लेते हैं जबकि कोई-कोई अदृश्य हो जाते है । चुटकी भस्म या फूल पड़े रहेंगे । जबकी किसी किसी के मस्तिष्क में से प्रकाश निकल कर ब्रह्ममें विलीन हो जाते है ।

श्री युधिष्ठिर सब जानते थे फिर भी जुआ खेलने जाते हैं और जुआ खेलने के बाद भगवान श्रीकृष्ण से पूछते है कि "ऐसा क्यों हुआ ?" भगवान उत्तर देते है कि "आपका कर्म आपको वहां खींच गया ।"

व्यासजी ने अठारह पुराण लिखें है, वे महाज्ञानी ओर तपस्वी थे फिर भी उन्होंने मछुआरा कन्या के साथ शादी की.. संसार भोगा....कर्म खींच गया ।

विश्वामित्र मेनका में आकषिर्त हुए ओर संतान का जन्म होता है उनको भी उनका प्रारब्ध खींच गया ।

इन तीनों दृष्टांतों से समझा जा सकता है कि - प्रारब्ध कर्म भोग कर ही मुक्ति मिलती है


~प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज,
गिरनार साधना आश्रम, जूनागढ़

॥ हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त ॥
(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज की ४५ साल की कठोर तपस्या के फल स्वरुप उन्हें भगवान दत्तात्रेय से साधको के आध्यात्मिक उथ्थान और मानसिक शांति के लिए प्राप्त महामंत्र )



"संचित कर्म सदगुरु की कृपा से जल जाते है । जबकि हररोज बनते क्रियमाण कर्म हर दिन सदगुरु को अर्पण करने से उसका संग्रह नहीं होता, लेकिन प्रारब्ध कर्म तो भूगतने ही पड़ते है । सदगुरु कृपा से प्रारब्ध कर्म भूगतने में कष्ट नहीं होता । जिस तरह डॉक्टर शरीर का अंग झूठा/निष्क्रिय कर के फिर ऑपरेशन करते हैं जिससे हमको पता भी नहीं चलता, इसी प्रकार प्रारब्ध कर्म भी कम तकलीफ में भोगले ऐसी शक्ति सदगुरु देते है । भगवान श्रीकृष्ण को भी प्रारब्ध कर्म भोगना ही पड़ा था ।"
~प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज



Karma Prarabdh Karma Kriyman Karma Sadguru Dattatreya Yudhisthir Vishwamitra Raja Janak Videh Samadhi Avadhut MahaMantra Drashta P.P. Maharshi Punitachariji Maharaj Hari Om Tatsat Jai Guru Datta Mantra for mental peace