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सत्संग महिमा

"विवेक चूड़ामणि" एक सुंदर ग्रंथ है । जिसमें श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी ने कहा है कि -

दुर्लभं त्रयमेवैतत् लोकानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संश्रयाः॥ अर्थात्

इस संसार मे तीन चीज़े दुर्लभ है -

१ - मनुष्य अवतार 2 - मुक्ति की इच्छा और ३ - महापुरुषों का संग

अनेक जन्मों की लंबी यात्रा के बाद मनुष्य जन्म मिलता है । स्वर्ग में रह रहे देव भी मनुष्य जन्म के लिए तरसते है । क्योंकि मृत्यु लोक कर्मभूमि है और देवलोक पुण्य भूमि है । यहां जितने भी पुण्य किए हो उसके फल स्वरुप ही स्वर्ग मिलता है । पुण्य भंडार का क्षय होने के बाद एक पल भी स्वर्ग में रहने का अधिकार नहीं है । स्वर्ग प्राप्ति के बाद भोग- वैभव मिलने पर भी परम शांति नहीं मिलती । इसीलिए मोक्ष के लिए ही निष्काम कर्म करने का मन ही मन निर्णय करके देव मनुष्य जन्मकी इच्छा करते है । पशु-पक्षी आदि की तिर्यक योनि में बहुत दुःख देखने को मिलता है। बारिश के दिनों में साधना के दौरान छोटी सी चारपाई पर छाते के जैसी कुटज वनस्पति के बड़े पत्ते सिर पर ढक के जप करता था तब बहुतसे सर्प पानी में बहके चारपाई के पाए से लिपट जाते थे तो कभी-कभी शरीर पे भी लिपट जाते थे । बारिश की एक बूंद के साथ छोटे से मच्छर की मौत होती । जंगल की भयानक रात में बंदर और बंदरिया ठंड से बचने के लिए एक दूसरे को लिपट के बैठे हुए देखा है । भूखा तेंदुआ भयानक आवाज करके बंदरों को रात में डराता था, बंदर डर के मारे दूसरे पेड़ पर छलांग लगाते और बारिश की वजह से चिकनी डाली से फिसल कर नीचे गिर जाते थे और तेंदुए को भोजन मिल जाता था । तीन-चार दिन की भूख की वजह से मुझे बहुत चक्कर आते थे, कमजोरी लगती थी किन्तु सदगुरु कृपा से सहज रुप से मेरा रक्षण होता था । कहने का मतलब यह है कि - अन्य योनियों की तुलना में मनुष्य योनि में बहुत कम तकलीफ है ।

मनुष्य जन्म मिलने के बाद माया के प्रलोभनो से बचकर रहना भी एक साधना ही है । हर दिशाओं से प्रलोभन आ कर अपनी और खींचते है और भ्रम में डालते है । सिद्ध-संत कहते हैं कि - अनेको जन्मों के पुण्य संचित हो तभी जीव को मोक्ष-मुक्ति की इच्छा होती है । धन, पुत्र, परिवार, पद, प्रतिष्ठा की इच्छा तो सबको होती है लेकिन मुमुक्षुत्व तो कोई-कोई विरल पुरुष में ही देखने को मिलता है ।

मनुष्य देहधारी को मोक्ष की इच्छा जगे, उसमें भी उसको किसी समर्थ महापुरुष का संग मिल जाए तो उसका बेड़ा पार हो जाता है । सच्चे महापुरुष का संग अर्थात् सत्संग, सोने में सुगंध समान होता है । सत्संग तो अति दुर्लभ है । जिसको "सत्संग" मिला उसको सहज रूप से ही मनुष्य जन्म और मुमुक्षुत्व मिलता है इस बारे में एक प्रचलित कथा है ।

एक बार त्रिलोक विहारी महर्षि नारद मुनि सोच में पड़ गए । उन्होंने देखा कि - आज कल प्रभु पृथ्वी पर सत्संगीओ का बहुत ध्यान रखते है । "सत्संग कैसे लाभप्रद है?" यह प्रश्न लिए वह नारायण-नारायण करते हुए प्रभु के पास पहुंचे, और सत्संग के विषय में उनकी संशयवृत्ति बताई । अंतर्यामी प्रभु तो मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहने लगे कि - यह प्रश्न आप एक जंतु(मच्छर) को पूछिए वो जवाब देगा ।

यह बात सुनकर नारद मुनि और भी ज्यादा सोच में पड़ गए । प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करनी ही पड़े । पृथ्वी लोक में आ कर एक मच्छर से सत्संग से होने वाले फायदे का प्रश्न पूछा । सवाल सुनते ही मच्छर मर गया । महर्षि तुरंत भगवान के पास पहुंचे और यह कथा बताई । प्रभु फिरसे मुस्कुराए और बोले - "अभी पृथ्वी पर एक (प्राणी) कुत्ते का जन्म हुआ है उससे पूछिए" । शंका का समाधान करना ही है ऐसा दृढ़ निश्चय करके नारद मुनि उस कुत्ते के पास पहुंचे, वही सवाल किया और वह भी तुरंत मर गया । आश्चर्य और कुतूहलवश फिर से नारायण के पास पहुंचे । नारद मुनि को आते देख, प्रभु सामने से बोले - "हाल ही में पृथ्वी पे एक बछड़े का जन्म हुआ है उससे पूछो" । नारद मुनि सोचते है की - "पात्र बदल रहे हैं, प्रश्न एक ही था उसमें से अब प्रश्नों की झड़ी शुरू हो गई" । बछड़े के पास गए और सत्संग महिमा का प्रश्न किया और बछड़े के प्राण भी निकल गए । प्रश्न का जवाब तो मिला नहीं और गौहत्या का पाप लगा । नारायण ने तो मुझे धर्म संकट में रख दिया । प्रभु ऐसी अजीबोगरीब लीला करते ही क्यों है ऐसे विचारो के बवंडरमें लीला पुरुषोत्तम के पास जाकर दुःखी होकर सब बात बताई । फिर से नारायण बोले कि - "पृथ्वी लोक में एक राजा के यहां राजकुमार का जन्म हुआ है वह अवश्य आपके प्रश्न का जवाब देगा। आपको आपके प्रश्न के समाधान के लिए अब अन्य किसी के पास पृथ्वी लोक में चक्कर नहीं लगाने पड़ेगे उस बात का मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ ।" नारद मुनि बोले की - "अब मुझे जवाब नहीं चाहिए । गौ हत्या का पाप तो लगा अब मानव हत्या का पाप मुझे अपने सर नहीं लेना है । आपको जवाब देना हो तो दीजिए ।" प्रभु ने कहा कि - "आपके सवाल से राजकुमार की मृत्यु नहीं होगी इस बात का में विश्वास दिलाता हूँ । आप निश्चिंत होकर जाइए ।" प्रभु से आज्ञा लेकर महर्षि नारद सीधे राजमहल पहुंचे । राजा ने उनका षोड़ोपचार पूजन आदि करके उनके आने का प्रयोजन पूछा । नारद मुनि ने कहा कि - "मुझे राजकुमार से एक प्रश्न पूछना है ।" राजा ने कहा कि - "अभी-अभी जन्मा हुआ राजकुमार आपको क्या जवाब दे पाएगा?? आप श्री पधारे हो तो उसको आशीर्वाद दीजिए ।" राजा महर्षि नारदजी को राजकुमार के पास ले गए । प्रभु के प्यारे भक्त नारद मुनि ने राजकुमार को प्रश्न पूछा और सब के आश्चर्य के बीच राजकुमार बोला कि - "हे महर्षि ! आप अब सत्संग सुनाइए जिससे हमारा कल्याण हो । आपकी कृपा से मेरी प्रगति हुई है । आपका मात्र एक बार सत्संग हुआ तो उससे मेरा कल्याण हो गया । मच्छर योनि में पहली बार आपके दर्शन हुए और उसमें से मुक्त हुआ । इसके बाद मेरा कुत्ते और बछडे के रूप में जन्म हुआ । आपके क्षणिक संग से मुझे प्राणियों की योनि में से मुक्ति मिल गई । और आखिर में राज वैभव भोगने के लिए यहां मेरा जन्म हुआ है । मुझे विश्वास है कि, आपके सत्संग से मुझे मनुष्य जन्म में अवश्य मुमुक्षुत्व जागेगा और आपकी कृपा से परम पद की प्राप्ति होगी । आपका बार-बार जय जयकार हो । मेरा हृदय पूर्वक कोटि-कोटि वंदन स्वीकार कीजिए ।" नारद मुनि ने भी सत स्वरूप प्रभु का जय जयकार करते हुए वंदन के साथ नारायण-नारायण की धुन गाते-गाते हुए वैकुंठ की ओर प्रस्थान किया ।


~प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज,
गिरनार साधना आश्रम, जूनागढ़

॥ हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त ॥
(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज की ४५ साल की कठोर तपस्या के फल स्वरुप उन्हें भगवान दत्तात्रेय से साधको के आध्यात्मिक उथ्थान और मानसिक शांति के लिए प्राप्त महामंत्र )

"जीवनमे सुवास और प्रभु में विश्वास रखिए"

~(प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज)



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