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रक्षाबंधन

रक्षा बंधन मात्र एक औपचारिक त्यौहार नहीं है, उसमें गुढ रहस्य छुपा हुआ है । बहन भाई को राखी बांधे, इसकी शुरुआत कहाँ से ? क्यों ? और कैसे हुई ? उसकी कथा आप लोगों को जरूर पता होगी फिर भी शास्त्रों और महापुरुषों के सत्संग के आधार पर समझ में आए उस तरह से लिखने का प्रयास कर रहा हूं।

सुरपति इंद्र जब दैत्य - दानवों से परास्त होकर हिमालय की गुफाओ-कंदराओ में ग्लानि के साथ विचरण कर रहे थे, पश्चाताप कर रहे थे और मन ही मन ब्रह्मा, विष्णु और महेश का स्मरण कर रहे थे, ब्रह्म चिंतवन कर रहे थे, परमात्मा तथा परमात्मा की शक्तियों को याद कर रहे थे तब तेजोमय एक दिव्य शक्ति नारी रूप में प्रगट होती है । करुणा और दया से भरपूर दृष्टि से मुस्कुराती हुईं इंद्र को देखती है । इंद्र दोनों हाथों को जोड़ के उन्हें पूछते है कि - "हे मा ! आप कौन है ?" तब वह आद्य शक्ति बोलती है कि - "हे इंद्र ! में कौन हूँ, वह तुझे संक्षिप्त में बताती हूँ । मैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश और प्राणी मात्र में चराचर में व्याप्त होकर रहने वाली, नाम-रूप-रंग रहीत, सर्वत्र व्याप्त चैतन्य शक्ति हूँ। जब दैत्यों, दानवों, निशाचरो, राक्षसों आदि अनीति, अत्याचार, अधर्म, हिंसा, बलात्कार आदि कुविचारों से सत्य को, न्याय को, और धर्म को कुचलना चाहते है और साथ-साथ तपस्वीओ को, ऋषियों, ब्राह्मणों, गायों, निर्दोष और निखालश व्यक्तियों के ऊपर अत्याचार होने लगे, धर्म के ऊपर अधर्म विजय प्राप्त करने का प्रयास करने लगे तब निरंजन-निराकार परमात्मा ब्रह्मा, विष्णु और महेश के माध्यम से शक्तिमान होकर अनेकों स्वरूपों मे अवतरित होते है और जगत का कल्याण करते है । कभी देव तो कभी दैवीय जगत का उद्धार करते है। "

"हे देवराज इंद्र ! आपको अच्छे से पता है कि - शुभ कर्म से, सत्कर्म से, सत्य से, न्याय से, अहिंसा से और करुणा से, होम से और यज्ञ से, व्यक्ति देव कोटि से भी आगे परम शांति, परम पद तक पहुंचकर परमानंद प्राप्त करता है और असत्य, अन्याय, अनीति, अनाचार, हिंसा आदि पापाचारो से अधम योनि में जाकर असह्य कष्ट भोगते है । हे इंद्र ! आप जानते है कि व्यक्ति कर्म करने मे स्वतंत्र है लेकिन कर्म भोगने में नही ।"

"हे इंद्र ! तपस्या सब करते है । देव, दानव, मानव, दैत्य, राक्षस सब तपोबल से ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आद्यशक्ति और अन्य देवों को प्रसन्न करके, प्रत्यक्ष दर्शन करके वरदान पाते है, फिर वरदान और शक्तिओं का दुरुपयोग करते है, तो कोई सदुपयोग भी करते है । संक्षेप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रत्यक्ष दर्शन भी तब तक जीवात्मा को लाभदाई नहीं होते जब तक उनकी मनोवृति और संकल्प शक्ति पवित्र और मंगलमय न हो । दैत्यों और राक्षसोने देवताओं को प्रसन्न करके कैसे-कैसे वरदान मांगे है जैसे कि - हिरण्यकशिपु ने वरदान मांगा कि - मैं ना ऊपर ना नीचे, ना घर में ना बाहर, ना दिन में ना रात में, ना अस्त्र से ना शस्त्र से, ना मनुष्य से ना जानवर से मरू। ऐसे ही रावणने और अन्य दैत्यों और राक्षसों ने वरदान प्राप्त कर के, देवो और सत्कर्मियो के संहार में शक्ति का दुरुपयोग कीया है । इसके विपरीत ऋषियों, महर्षिओ और तपस्वियोंने शुद्ध-सात्विक भाव से तपस्या कर के जगत का आत्मज्ञान, परमपद और मुक्ति पाई है और खुद आनंद में रह कर उनके कुटुंब, परिवार और समाज को सन्मार्ग पर ले गए है । सारांश यह है की - किसी भी देव का प्रत्यक्ष दर्शन ज्यादा महत्त्व नहीं रखता । महत्त्व तो तपस्वी के संकल्प का है ,की आप किस हेतु से तपस्या कर रहे है । इस तरह हेतु और संकल्प के अनुसार तपोशक्ति लाभ देती है ।"

"हे इंद्र ! अब मैं मूल बात पर आती हूँ । आपने जीवात्मा में से बोध प्राप्त कर के, तपस्या कर के इंद्र पद प्राप्त किया है । जब तुम तपस्या से विमुख होकर सुरा, सुंदरीमें, भोगमें डूबते हो तब तुम्हारा पतन होता है ।"

"सत्य, न्याय, करुणा, दया, अहिंसा, सेवा, क्षमा, सत्कर्म आदि सदगुण जीवात्मा के भीतर, देवो के भीतर महान बनके उन्हें उन्नति के पथ पर ले जाते है । उपरोक्त सभी गुणों में जो शक्ति है वो में हूँ । तुम सत्कर्म से विमुख हुए हो इसीलिए तुम देव में से साधारण जीव बन के ग्लानि का अनुभव कर रहे हो और फिरसे मन ही मन ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति का चिंतवन कर रहे हो तब मैं शक्ति स्वरूप में प्रगट हुई हूँ और तेरा कल्याण चाहती हूँ।"

"समस्त गुणों से संपन्न सत्कर्मों में जुड़ा हुआ जीवात्मा भाई है और उस सत्कर्मों के अंदर जो शक्ति व्याप्त होती है वह शक्ति बहन के स्वरुप में मैं हूँ। संक्षेप में, सत्कर्मों के त्याग से जीवात्मा, देवात्मा शक्तिहीन बनते है, उनकी ग्लानि और प्रार्थना से मैं प्रगट होकर उन्हें सावधान करके सन्मार्ग पे चलने की प्रेरणा करती हूँ और रक्षा-कवच बनकर उनकी रक्षा करती हूँ । इसीलिए, हे इंद्र ! तेरे हाथ में सत्य, न्याय, सत्कर्म, तपस्या आदि स्वरूप में बंधके रक्षा करने के लिए वचनबद्ध होती हूँ । इसीलिए, तुम सजाग हो के सत्कर्म में जुड़ जाओ, यही प्रेरणा देने में प्रगट हुई हूँ।" ऐसा कह इंद्र के दाएं हाथ में आद्य शक्ति राखी (रक्षा) बांध कर अदृश्य हो जाती है और इंद्र फिर से तपोमार्ग-सन्मार्ग अपनाकर मूल स्वरूप की ओर जाने के लिए प्रेरित होते है ।

इस सत्संग का सारांश यह है कि - बहन मतलब समस्त सत्कर्मों के अंदर समाई हुई शक्ति और सत्य । खुद की बहन में बहन की दृष्टि रखकर मात्र रक्षा बांधने से कुछ नहीं मिलता, साथोसाथ साधना भी करनी चाहिए । मात्र व्यावहारिक-लौकिक औपचारिकता करने से कुछ नहीं मिलता । लेकिन जो भाई खुद आत्म स्वरूप में आकर, मतलब - में नाम, रूप, रंग रहित, जाति, वर्ण, संप्रदाय से परे, साक्षी भाव से कर्म करता हुआ एक आत्मा हूँ । मेरे सभी कर्म निष्काम भाव से, परमार्थ हेतु से, अहंकार रहित हो और सदा सब शुभ हो, और में अपने कर्तव्य से विमुख न होऊ, भटकू नहीं उसके लिए अणुं-अणुं में अखंड व्याप्त आद्यशक्ति बहन के स्वरूप में, देवी के स्वरूप में रक्षा सूत्र बांधकर मुझे सदा सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा दे, अयोग्य कर्म करने से बचाएं, ऐसी नारीमात्र को में वंदन करता हूँ ।

इस पवित्र भाव से खुद की बहन या तो किसीको भी सात्विक स्वरूप में बहन बनाकर रक्षा कवच बंधा सकते है । बाकी तो, इस रक्षा बंधन में और कोई लौकिक संबंध नहीं आता, यहाँ तो मात्र शक्ति और ब्रह्म का संबंध है । सबका भला हो, सबका कल्याण हो, सबका मंगल हो , सब भेदभाव रहित एक विश्वबंधुत्व के सूत्र में बंध जाए और एक कुटुंब-एक परिवार के स्वरूप में रहे ऐसी सभी संत, ऋषि, महर्षि और महापुरुष शुभेच्छा व्यक्त करते है ।



~प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज,
गिरनार साधना आश्रम, जूनागढ़

॥ हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त ॥
(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज की ४५ साल की कठोर तपस्या के फल स्वरुप उन्हें भगवान दत्तात्रेय से साधको के आध्यात्मिक उथ्थान और मानसिक शांति के लिए प्राप्त महामंत्र )



"बहन मतलब समस्त सत्कर्मों के अंदर समाई हुई शक्ति और सत्य । खुद की बहन में बहन की दृष्टि रखकर मात्र रक्षा बांधने से कुछ नहीं मिलता, साथोसाथ साधना भी करनी चाहिए । मात्र व्यावहारिक-लौकिक औपचारिकता करने से कुछ नहीं मिलता । लेकिन जो भाई खुद आत्म स्वरूप में आकर, मतलब - में नाम, रूप, रंग रहित, जाति, वर्ण, संप्रदाय से परे, साक्षी भाव से कर्म करता हुआ एक आत्मा हूँ । मेरे सभी कर्म निष्काम भाव से, परमार्थ हेतु से, अहंकार रहित हो और सदा सब शुभ हो, और में अपने कर्तव्य से विमुख न होऊ, भटकू नहीं उसके लिए अणुं-अणुं में अखंड व्याप्त आद्यशक्ति बहन के स्वरूप में, देवी के स्वरूप में रक्षा सूत्र बांधकर मुझे सदा सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा दे, अयोग्य कर्म करने से बचाएं, ऐसी नारीमात्र को में वंदन करता हूँ । इस पवित्र भाव से खुद की बहन या तो किसीको भी सात्विक स्वरूप में बहन बनाकर रक्षा कवच बंधा सकते है । बाकी तो, इस रक्षा बंधन में और कोई लौकिक संबंध नहीं आता, यहाँ तो मात्र शक्ति और ब्रह्म का संबंध है । सबका भला हो, सबका कल्याण हो, सबका मंगल हो, सब भेदभाव रहित एक विश्वबंधुत्व के सूत्र में बंध जाए और एक कुटुंब-एक परिवार के स्वरूप में रहे ऐसी सभी संत, ऋषि, महर्षि और महापुरुष शुभेच्छा व्यक्त करते है ।"

~(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज)




Rakshabandhan 2002 Indra Shakti Devi rakhi